सीन एक ……भोपाल के श्यामला हिल्स पर बने सीएम हाउस के प्रांगण में बारहों महीने तने रहने वाले तंबू में लगी सैंकडों कुर्सियों में लोग ठसाठस भरे पडे हैं। पीछे पुरूष तो आगे महिलाओं ने मोर्चा संभाल रखा है। मंच पर एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक राजपूताना रंगबिरंगी पगडी पहने बैठे लोगों के बीच थोडे से असहज होकर अपनी कुर्सी पर गुडी मुडी से बैठे हैं हमारे एमपी के सीएम शिवराज सिंह जी। माइक बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान जी के हवाले हैं जिस पर वो अपनी चिरपरिचित शैली में कभी आगे तो कभी पीछे देखकर लगातार गरज रहे हैं…ये अंसाली भंसाली सब पैसों के प्रेमी हैं…. पापी कीडे हैं जिन्होंने हमारी राष्ट्रमाता रानी पदमावती के सम्मान के साथ खिलवाड किया है। इनको हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। पंडाल में तालियां बज जाती हैं। अब बारी आती है शिवराज जी की। पहले वो भी राजपूताना शौर्य की विरदावली गाते हैं फिर आते हैं असल मुददे पर। अंगुली उठाकर कहते हैं कि हमें पता चला है कि फिल्म पदमावती में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड छाड की गयी है हम ऐसी फिल्मों को,,,शिवराज जी की अंगुलली नीचे गिर नहीं पाती कि सामने की भीड कुर्सियों से उठ खडी होती है बेन करो बेन करो बेन करो,,,अरे आप सुनिये तो मगर सामने की भीड कुछ सुनने को तैयार नहीं होती, बस फिर क्या था सीएम कहते हैं अगर ऐसा हुआ होगा तो ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन मध्यप्रदेश मे होने नहीं दिया जायेगा भाईयों बहनों। सामने बैठी भीड यही सुनना चाहती थी बस फिर क्या था लगने लगे पंडालचुंबी नारे शिवराज जी जिंदाबाद करणी सेना जिंदाबाद। उधर जब ये जोश ठंडा पडा तो नारे लगाने वाले मेरे एक परिचित थोडे चिंतित मुद्रा मे आगे आये और कहा ये तो हमारी मुंहमांगी मुराद पूरी हो गयी मगर क्या जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड पारित कर दे उसे कोई राज्य सरकार रोक सकती हैं। मैंने कहा बिलकुल नहीं जब केंद्र सरकार का बनाया सेंसर बोर्ड फिल्म के प्रदर्शन का प्रमाणपत्र देता है तो उस फिल्म के बेरोकटोक प्रदर्शन की जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की बनती हैं ऐसा नहीं करना मोदी सरकार की हुकुमउदूली है मगर धारा 144 लगाकर किसी को भी कुछ भी करने से रोका जा सकता है ऐसे में ये फिल्म क्या चीज है। इसे भी सरकार जैसे तैसे रोक ही देगी।
सीन दो…….एक हिंदी के न्यूज चैनल पर रात की गर्मागर्म बहस छिडी हुयी थी। फिल्म का प्रदर्शन हो या ना हो। फिल्म में क्या गलत है क्या सही है बात चल रही थी। फिल्म को बिना देखे ही कयास लगाये जा रहे थे कि उसमें ये तथ्य गलत दिखाया है वो गाना अश्लील है। फिल्म के कंटेंट पर बात चलते चलते कलाकारों पर आ जाती है। अभिनेत्री दिपिका पादुकोण को गरियाया जाने लगता है। अचानक बहस का एक प्रतिभागी दिपीका की नाक काटने वाले को इनाम देने का ऐलान करता है तो वहीं दूसरे चैनल पर बैठे शख्स फिल्म निर्माता निदेशक संजय लीला भंसाली की गर्दन काटने वाले को दस करोड रूप्ये देने का जयघोष करने लगते हैं। थोडी देर तक कानों पर भरोसा नहीं हुआ ये हो क्या रहा है। हम हिंन्दुस्तानी चैनल देख रहे हैं या अफगानी। कभी पाकिस्तानी चैनल में भी हमने किसी को इस तरह सरेआम नाक और गर्दन काटकर हत्या करने की धमकियां देते नहीं देखा।
सीन तीन……अंग्रेजी का चर्चित चैनल यहां भी बहस का मुददा पदमावती ही है। राजपूत समाज की ओर से पक्ष रखने आये लोग बैठे हैं। टीवी दृश्य का मीडियम है। इसलिये बिना बोले ही समझ में आना चाहिये कौन क्या है। यानिकी चोटी या तिलक वाला पंडित तो गोल टोपी और लंबी दाढी वाला मौलवी। ऐसे में राजपूत समाज वाले शख्स राजस्थानी रंगीन गोल टोपी के साथ हाथ में तलवार लेकर स्टूडियो में बैठा दिये गये हैं। स्क्रीन पर नजर जाते ही आप समझ जायें कि यहां भी बहस पद्मावती पर ही हो रही है। तलवार थामे राजपूत जवान बातचीत के बीच में कभी कभी अपनी तलवार भी म्यान से निकालकर लहराते भी हैं। ऐसा उनसे शायद टीवी स्टूडियो वालों ने कहा भी होगा क्योकि टेबल के नीचे या उपर रखी तलवार दिखती नहीं। लहरायेंगे तभी दिखेगी। और इधर हम तलवार देखने वालों की सांसे थमीं हैं। बहस की गर्मागर्मी में तलवार किसी की गर्दन पर ना चल जाये ये सोच कर प्राण सूखे जा रहे थे। लाइव धमकियों के बाद लाइव मर्डर भी ना देखने मिल जाये।
सीन चार……..देश के वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक का देश के कई अखबारों में छपने वाला कालम। जिसमें वो लिख रहे हैं कि मुंबई में एक प्राइवेट स्क्रीनिंग में फिल्म देखी और हैरान हूं कि इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिसको लेकर बवंडर खडा किया जा रहा है बल्कि फिल्म में रानी पद्मावती और राजा रतन सिंह का प्रेम का गजब वर्णन है। बेहद दर्शनीय सुंदर फिल्म है। पद्मावती का इतना बेहतर चरित्र चित्रण किया गया है कि दिपीका के अभिनय और उनकी सुंदरता को लोग लंबे समय तक याद रखेंगे। खिलजी अपने क्रूर रूप में है लेकिन कहीं भी उसके और रानी के साथ अंतरंग सीन नहीं हैं। समझ नही आ रहा इस फिल्म का विरोध क्यों और किस बात पर हो रहा है। मगर ये क्या फिल्म का पक्ष लेने वाले पत्रकार वैदिक और रजत शर्मा को भी भंसाली के खेमे का बताया जाने लगता है।
सीन पांच ….. देश के एक ओर वरिष्ट पत्रकार शेषनारायण सिंह किसी चैनल पर कर्णी सेना के नेता से उलझे हुये थे कह रहे थे मैं भी यूपी के राजपूत इलाके से आता हूं राजपूत हूं मगर आप राजपूतों का फिल्म पर बवाल बेवजह का है किसी अच्छे सामाजिक मुददे पर एकजुट होकर विरोध करते तो कुछ बात होती। देश में दो प्रतिशत हैं राजपूत माइनोरिटी में हो आरक्षण की बात करो, बालिका शिक्षा और विधवा विवाह की बात करो तो समझ आता है किसी कथा कहानी पर बनी फिल्म को अपनी आन बान शान से जोडकर हंगामे करने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक फिल्म लगने और चलने से राजपूत समाज धरातल पर नहीं चला जायेगा। फिल्म देखना हो देखो ना देखना हो ना देखो मगर विरोध कर फिल्म का प्रचार ना करो।
देश में फिल्मों पर होने वाले विवाद नये नहीं हैं मगर पद्मावती फिल्म के रिलीज के पहले से ही उठ रहे हंगामे और शोर के इन दृश्यों से आप कुछ समझ सकें हों तो मुझे बताइयेगा जरूर।
ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज,
भोपाल