पवन बाली | दीपावली बीतने के साथ ही दिल्ली में वायु प्रदूषण के राग का आलाप शुरू हो गया। कारण साफ है, दिल्ली की वायु वाकई प्रदूषित है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि वहां के ये हालात सिर्फ और सिर्फ दीपावली की आतिशबाजी के चलते खराब हुए हैं। बल्कि सही बात तो ये है कि ये जो कुछ हो रहा है, इसके लिए कई किसम की मानवीय भूलें दोषी हैं।

उदाहरण के लिए हम पूरे दिल्ली और एन सी आर की सडक़ों पर बेतहाशा बढ़ रहे वाहनों के दवाब पर नजर डालें। दिन दिन भर यहां यातायात का जाम बने रहना, जैसे दिल्ली वासियों की तकदीर ही बन गया है। खासकर सुबह और शाम कार्यालयीन आवागमन के समय तो दिल्ली की आवो हवा में सांस लेना ही दूभर हो जाता है। तो फिर यह दावा कैसे बनता है कि वहां जितना भी वायु प्रदूषण हुआ, उसके मूल में सिर्फ और सिर्फ दीपावली की आतिशबाजी ही है। यहां हमारा आशय माननीय न्यायालय के निर्णय पर सवाल उठाना कतई नही है। बल्कि इस ओर ध्यान आकर्षित कराने का है कि आतिशबाजी तो क्रिसमस डे पर भी होती है और पूरी दुनिया में बेतहाशा होती है। जब कोई पार्टी बिशेष सरकार में आती है, तब भी पटाखों के कार्टून के कार्टून खाली कर दिए जाते हैं।
लेकिन कुछ पर्यावरण विद जब अकेली दीपावली को ही लक्ष्य बनाकर आतिशबाजी पर सवाल उठाते हैं तो उनकी मंशा पर संदेह बनता है। सही बात तो ये हे कि दिल्ली में सबसे ज्यादा प्रदूषण वहां की सडक़ों पर धीमी गति से रेंग रहीं लाखों जीपों व कारों से है। हां ये बात सही है कि दीपावली वाले दिन इन बेतहाशा बढ़ चुके वाहनों के जहरीले धुंए के साथ आतिशबाजी का धुंआ भी मिल जाता है और हालात बदतर हो जाते हैं। तो फिर वायु प्रदूषण का ठीकरा केवल दीपावली की आतिशबाजी पर ही 0क्यों । कायदे से तो दीपावली के त्यौहार पर ही किसलिए, हमेशा हमेशा के लिए दिल्ली के वाहनों का आवागमन सीमित किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कुछ समय पहले वहां के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल ने कारों को लेकर एक प्लान लागू किया था। उसके मुताबिक वहां एक दिन सम और एक दिन बिषम नंबरों वाली कारों का आवागमन होना था। लेकिन स्थानीय लोगों ने उस जन हितैषी योजना को ही एक सिरे से खारिज कर दिया। नतीजा ये हुआ कि आज दिल्ली एनसीआर में पुराने वाहनों का दवाब बरकरार है और रोजाना नए डेड़ हजार वाहनों का रेला इसमें शामिल होता जा रहा है। कहने का आशय यह कि जो स्वयंभू विद्वान दीपावली की आतिशबाजी पर हायतौबा मचा रहे हैं, उन्हें वाहन चालन की अल्टरनेट व्यवस्था पर केजरीवाल का साथ देकर वायु प्रदूषण का स्थाई समाधान करना था। लेकिन पर्यावरण में इनकी रूचि हो तब न।
इनकी दिलचस्पी तो इसमें रहती है कि भारतीय संस्कृति पर प्रहार कैसे और कब किया जाए। यही तो वो वजह है जिसके चलते इन्हें पानी बचाने की चिंता सिर्फ और सिर्फ होली के समय सताती है। जबकि साल भर स्थानीय निकायों और नागरिकों की लापरवाही से साल भर नालियों में बेकार बहता साफ पानी इन्हें दिखाई तक नही देता। तब ये अदालत में नही जाते और तब ये गुहार नही लगाते कि अपनी लापरवाही से पीने का पानी बर्बाद कर रहे लोगों पर दंडात्मक कार्यवाही की जाए। इनकी इन करतूतों का देखकर कहा जा सकता है कि,कोई आश्चर्य नही कि ऐसे लोग निकट भविष्य में होली पर पानी की कथित बर्बादी को लेकर भी न्यायालय में पहुंचें और यह मांग रखें कि होली के दिन पानी के इस्तेमाल पर विधि पूर्वक रोक लगाई जाए। अत: ऐसे संस्कार विरोधी और पश्चिमी अनुगामी इन स्वयंभू विद्वानों को समझने की अैार इनका बौद्धिक स्तर पर विरोध करने की जरूरत है। वर्ना वह दिन दूर नही जब ये लोग कभी विकास के नाम पर तो कभी आधुनिकता के नाम पर हमारे तीज त्यौहारों की हत्या करते रहेंगे। और याद रहे, जो देश अपनी संस्कृति भूल जाए, फिर उसे बर्बाद होने से विधाता भी नही बचा सकता। जहां तक दिल्ली सहित समस्त महानगरों में बढ़ रहे प्रदूषण की बात है तो इसे हलके में नही लिया जा सकता। इसके लिए निजी वाहनों का कमतर प्रयोग, वृक्षारोपण, साफसफाई, जैसे परंपरागत विकल्पों को व्यवहार में लाया जाना चाहिए।